गाँधी की लाठी से अगरबत्ती की काढ़ी तक का सफर
सीधी से 15 किलोमीटर की दूरी पर है बैगा जनजाति बहुल गाँव गाँधीग्राम। मात्र ढाई-तीन साल में लोगों के जीवन-स्तर में सुखद बदलाव देखना है तो गाँधीग्राम जाइये। इस ग्राम और आसपास के गाँव- कोल्हूबीह, हसवा, बहेरटा, तेजवा, दरिया, कुडिन, गुरियरा, नेबुहा, अधियारी खोह, सतपहरी,
पदखुरी, बिसमीटोला आदि की 2500 महिलाएँ पिछले तीन साल से अगरबत्ती उद्योग से जुड़कर घर की मुख्य कमाऊ सदस्य बन चुकी हैं। इनकी अगरबत्ती सीधी, रीवा, मैहर, सतना, जबलपुर, सिंगरौली और ब्यौहारी के बाजार में अपनी पैठ बनाने के साथ ही राष्ट्रीय बाजार में जगह बनाने के प्रयास कर रही हैं। कोलकाता के लिये अनुबंध मिल चुका है तो शिलांग तक इनकी अगरबत्ती पहुँच चुकी है। ‘माँ चामुण्डा” नाम से यह अगरबत्ती उत्तरी-पूर्वी भारत में अपना स्थान बनाने का प्रयास कर रही है। अगरबत्ती से एक महिला को 150 से 200 रुपये रोजाना की आमदनी हो रही है।
अभी सब कुछ जितना सुनहरा दिख रहा है, गाँधीग्राम क्षेत्र में, तीन साल पहले हालात बिलकुल उलटे थे। बैगा, कोल, गोंड, साकेत आदि आदिवासी मात्र लकड़ी काटने-बेचने तक ही थे। महिला-पुरुष जंगल जाते, पेड़ों को काटते, सूखी लकड़ी बीनते-बेचते और पेट भरने लायक आमदनी से ही संतुष्ट हो जाते। न ठीक से तन ढँकता, साफ-सफाई, बच्चों की शिक्षा की ओर तो कोई ध्यान ही नहीं, जंगलों को नुकसान पहुँचाते सो अलग।
ऐसे में वन विभाग ने इनकी आमदनी बढ़ाने का बीड़ा उठाया। वर्ष 2012 में गाँधीग्राम में अगरबत्ती बनाने का प्रशिक्षण केन्द्र खोला गया। शुरू में इक्का-दुक्का को छोड़ ग्रामीणों ने इसमें कोई रुचि नहीं दिखाई। वन विभाग ने घरों में ही कच्चा मसाला पहुँचाया, बनाना सिखाया, बिक्री कर आमदनी हाथ पर रखी, तो ग्रामीण महिलाओं का हौसला बढ़ा। शुरू में स्व-सहायता समूह द्वारा 450 महिलाओं को अगरबत्ती बनाने का प्रशिक्षण दिया गया। इनमें से 20 महिलाओं को मास्टर-ट्रेनर के रूप में प्रशिक्षित किया गया। इन मास्टर-ट्रेनर ने गाँधीग्राम और आसपास के गाँव के 60 स्व-सहायता समूहों की 600 महिलाओं को प्रशिक्षित किया। गाँधीग्राम प्रशिक्षण केन्द्र में केवल 50 महिला ही काम कर रही हैं। बाकी अपने-अपने घरों में ही अपनी सुविधा से अगरबत्ती बनाती हैं। एक माह में लगभग 12-15 क्विंटल अगरबत्ती बन रही हैं।
वन विभाग द्वारा जंगल से आदिवासियों का ध्यान हटाने और जीवन-स्तर में सुधार की कुछ और गतिविधियाँ भी यहाँ संचालित हैं। इनमें बेम्बू ज्वेलरी, फटे कपड़ों से रस्सी, बाँस से कोयले के ब्रिकेट और आइस्क्रीम स्टिक, सीसल रेशे से हस्तशिल्प, महुआ के व्यंजन तथा अचार बनाना और मधुमक्खी पालकर शहद निकालना आदि हैं। पिछले साल भोपाल के प्र-संस्करण केन्द्र में करीब 10 क्विंटल शहद भेजा गया। अगरबत्ती काड़ी बनाने के लिये विभाग ने बाँस खरीदी केन्द्र बनाया है, जिसमें स्थानीय किसान खुद ही बाँस बेच जाते हैं। अगरबत्ती निर्माण में लगने वाली मशीनें भी उपलब्ध करवा रखी हैं। इन मशीनों द्वारा बाँसों की कटाई, साइजिंग से प्राप्त वेस्ट मेटेरियल भी अगरबत्ती बनाने में काम आ जाता है।
गाँधीग्राम में अगरबत्ती बनाती हुई महिलाओं की खिलखिलाहट, बातचीत में झलकता आत्म-विश्वास बताता है कि वे आत्म-तुष्टि से भरपूर जीवन जी रही हैं। वे न केवल अच्छा खा और पहन रही हैं, बल्कि बच्चे को भी स्कूल भेज रही हैं।
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