चिकन कारीगरों की समस्या के समाधान की दिशा में थ्रेडक्राफ्ट इंडिया उपक्रम की शुरुआत
‘चिकनकारी’ कशीदाकारी की एक शैली है। कहा जाता है कि मुगल सम्राट जहांगीर की पत्नी, नूरजहाँ ने इस कारीगरी को प्रचलित किया था। कशीदाकारी की यह जटिल शैली सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में मशहूर है। लेकिन दूसरे लोक-कलाकारों की तरह ‘चिकनकारी’ करने वाले कारीगर भी कठिन आर्थिक कठिनाइयों से गुजर रहे हैं क्योंकि उनकी कारीगरी से होने वाली कमाई का अधिकांश हिस्सा दलाल और मध्यस्थ लूट ले जाते हैं।
चिकन कारीगरों की इसी समस्या के समाधान की दिशा में काम करते हुए मोहित वर्मा ने थ्रेडक्राफ्ट इंडिया (Threadcraft India) नाम से अपने उपक्रम की शुरुआत की, जो सीधे कारीगरों को साथ लेकर काम करता है और सुनिश्चित करता है कि वे ‘चिकनकारी’ के व्यापार से होने वाली कमाई का वाजिब हिस्सा पा सकें और साथ ही इस परंपरागत हुनर को संरक्षित किया जा सके।
लखनऊ में कंपनी का एक निर्माण केंद्र है, जिसमें 25 से अधिक महिलाओं को काम पर रखा गया है। महिलाओं के काम का निरीक्षण करने के लिए एक टीम लीडर भी है। कशीदाकारों या कारीगरों को घर से काम करने की छूट है या वे केंद्र आकर भी काम कर सकते हैं। क्रेता व्यापारियों और कारीगरों के बीच थ्रेडक्राफ्ट एक कड़ी के रूप में काम करता है। खरीदारों के आदेशानुसार कपड़ा खरीदा जाता है, फिर उसे रंगा जाता है, उस पर छपाई की जाती है, जिसके बाद चिकन की कढ़ाई के लिए कारीगरों के पास पहुँचाया जाता है। कढ़ाई के बाद कपड़ों को धोया जाता है और अंत में तैयार कपड़े पैक करके ग्राहकों को भेज दिए जाते हैं।
कारीगरों को नियमित रूप से एक निश्चित वेतन मिलता है। कंपनी की मदद से शुरुआत से अब तक, सिर्फ पाँच महीनों में कारीगरों की आमदनी दूनी हो चुकी है।
चिकन का काम बहुत जटिल और बारीक होने के कारण मुफ़्त आँखों की जाँच के कैंप लगाकर कारीगरों की आँखों की नियमित जाँच कराई जाती है। आवश्यक होने पर उन्हें मुफ़्त चश्मे भी उपलब्ध कराए जाते हैं। थ्रेडक्राफ्ट की इस छोटी सी विकास यात्रा में डी बी एस बैंक का लगातार सहयोग मिलता रहा है।
समाज के प्रति अपनी प्रतिबद्धता और ज़िम्मेदारी समझते हुए पिछले तीन सालों में डी बी एस बैंक ने थ्रेडक्राफ्ट जैसे तीस उद्यमों की सहायता की है। सम्पूर्ण एशिया में सामाजिक उद्यमिता को बढ़ावा देकर और उन उद्यमों की मदद करके समाज को उसका देय वापस लौटाना ही डी बी एस बैंक के सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के प्रयासों के मूल में है। भारत में डी बी एस बैंक ने TISS के साथ साझीदारी करते हुए DBS-TISS सामाजिक उद्यमिता कार्यक्रम (DBS-TISS Social Entrepreneurship Programme ) प्रारम्भ किया है, जहाँ वे इन सामाजिक उद्यमियों को न सिर्फ सीड फंड (नये उद्यम की स्थापना में लगाया जाने वाला धन) उपलब्ध कराते हैं बल्कि TISS द्वारा भेजे गए नए उद्यमियों की विभिन्न मौलिक परियोजनाओं के प्रतिपालक और परामर्शदाता (mentor) के रूप में भी अपना योगदान देते हैं। मोहित बताते हैं कि किसी भी नए उद्यमी के लिए पूंजी की व्यवस्था सबसे कठिन चुनौती होती है लेकिन डी बी एस बैंक की मदद से वे हाल ही में आई आर्थिक मंदी से भी निपटने में कामयाब हुए।
फिलहाल थ्रेडक्राफ्ट इंडिया के पास दो तरह के ग्राहक आते हैं-बुटीक और निर्यातक। यह मुंबई के कुछ बुटीकों और एक निर्यातक के साथ सहयोग के ज़रिए संभव हुआ है। बुटीकों से प्राप्त आदेशों को केंद्र में काम करने वाले चिकन-कारीगर पूरा करते हैं जब कि निर्यातकों के आदेशों को विश्वासपात्र दलालों को दिया जाता है, जो बिना कारीगरों का शोषण किए उन आदेशों को पूरा करवाते हैं। भारत स्थित डी बी एस बैंक ने आर्थिक रूप से और प्रतिपालक के रूप में लगातार इस उद्यम को सहयोग दिया है। बैंक उनका सलाहकार भी रहा है और उनके अधिकारी नियमित रूप से मीटिंग करके उपक्रम की कमियों की शिनाख्त करते हैं और उन्हें दूर करने हेतु उपयोगी सलाह भी देते हैं।
चुनौतियाँ और भविष्य की योजनाएँ
क्योंकि थ्रेडक्राफ्ट इंडिया के ज़्यादातर उपभोक्ता समाज के उच्च वर्ग से आते हैं और उच्च कोटि के काम की अपेक्षा रखते हैं, इसलिए उसे कई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है। पूंजी निवेश एक मुख्य चिंता है क्योंकि उनकी आमदनी बुटीकों और निर्यातकों पर निर्भर करती है, जब कि चिकन के काम की निर्माण-लागत काफी ज़्यादा होती है। दूसरी चुनौती है-अच्छे कारीगरों की कमी, जिन्हें खोजना और साथ काम करने के लिए राज़ी करना टेढ़ीखीर होता है। “यह उद्योग इतना संतृप्त हो चुका है कि यहाँ बड़े परिवर्तनों की संभावना बहुत कम है। लेकिन, धीरे-धीरे चीज़ें बदल भी सकती हैं,” मोहित कहते हैं।
चुनौतियों को मोहित ज़िन्दगी का अटूट हिस्सा मानते हैं और इस उपक्रम को स्व-सहायता समूह में रूपांतरित करने की योजना पर काम कर रहे हैं। वे उसे ऐसे एन जी ओज़ से भी जोड़ना चाहते हैं, जो पहले ही स्व-सहायता समूहों से सम्बद्ध हों। अंततोगत्वा, वे आशा करते हैं कि इन उत्पादों को स्वयं निर्यात कर सकें, जिससे उपक्रम से होने वाले लाभों को कारीगरों के साथ और भी बेहतर तरीके से साझा कर सकें।
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